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पूर्णा का क्रोध शांत हुआ। काँपते हुए स्वर में बोली - 'बाबूजी, आप मुझसे कैसी बात कर रहे हैं, आपको लज्जा नहीं आती।'
कमलाप्रसाद चारपाई पर बैठता हुआ बोला - 'नहीं पूर्णा, मुझे तो इसमें लज्जा की कोई बात नहीं दीखती। अपनी इष्ट-देवी की उपासना करना क्या लज्जा की बात है? प्रेम ईश्वरीय प्रेरणा है, ईश्वरीय संदेश है। प्रेम के संसार में आदमी की बनाई सामाजिक व्यवस्थाओं का कोई मूल्य नहीं। विवाह समाज के संगठन की केवल आयोजना है। जात-पात केवल भिन्न-भिन्न काम करने वाले प्राणियों का समूह है। काल के कुचक्र ने तुम्हें एक ऐसी अवस्था में डाल दिया है, जिसमें प्रेम-सुख की कल्पना करना ही पाप समझा जाता है, लेकिन सोचो तो समाज का यह कितना बड़ा अन्याय है। क्या ईश्वर ने तुम्हें इसीलिए बनाया है कि दो-तीन साल प्रेम का सुख भोगने के बाद आजीवन वैधव्य की कठोर यातना सहती रहो। कभी नहीं, ईश्वर इतना अन्यायी, इतना क्रूर नहीं हो सकता। वसंत कुमार जी मेरे परम मित्र थे। आज भी उनकी याद आती है, तो आँखों में आँसू भर जाते हैं। इस समय भी मैं उन्हें अपने सामने खड़ा रखता हूँ तुमसे उन्हें बहुत प्रेम था। तुम्हारे सिर में जरा भी पीड़ा होती थी, तो बेचारे विकल हो जाते थे। वह तुम्हें सुख में मढ़ देना चाहते थे, चाहते थे कि तुम्हें हवा का झोंका भी न लगे। उन्होंने अपना जीवन ही तुम्हारे लिए अर्पण कर दिया था। रोओ मत पूर्णा, तुम्हें जरा उदास देख कर उनका कलेजा फट जाता था, तुम्हें रोते देख कर उनकी आत्मा को कितना दुःख होगा, फिर यह आज कोई नई बात नहीं। इधर महीनों से तुम्हें रोने के सिवा दूसरा काम नहीं है और निर्दयी समाज चाहता है कि तुम जीवन पर्यंत यों ही रोती रहो, तुम्हारे मुख पर हास्य की एक रेखा भी न दिखाई दे, नहीं तो अनर्थ हो जाएगा। तुम दुष्टा हो जाओगी। उस आत्मा को तुम्हारी यह व्यर्थ की साधना देख कर कितना दुःख होता होगा, इसकी कल्पना तुम कर सकती हो? ईश्वर तुम्हें दुःख के इस अपार सागर में डूबने नहीं देना चाहते। वह तुम्हें उबारना चाहते हैं, तुम्हें जीवन के आनंद में मग्न कर देना चाहते हैं। यदि उनकी प्रेरणा न होती, तो मुझ जैसे दुर्बल मनुष्य के हृदय में प्रेम का उदय क्यों होता? जिसने किसी स्त्री की ओर कभी आँख उठा कर नहीं देखा, वह आज तुमसे प्रेम की भिक्षा क्यों माँगता होता? मुझे तो यह दैव की स्पष्ट प्रेरणा मालूम हो रही है।'
पूर्णा अब तक द्वार से चिपकी खड़ी थी। अब द्वार से हट कर वह फर्श पर बैठ गई। कमलाप्रसाद पर उसे जो संदेह हुआ था, वह अब मिटता जाता था वह तन्मय हो कर उनकी बातें सुन रही थी।
कमलाप्रसाद उसे फर्श पर बैठते देख कर उठा और उसका हाथ पकड़ कर कुर्सी पर बिठाने की चेष्टा करते हुए बोला - 'नहीं-नहीं पूर्णा, यह नहीं, हो सकता। फिर मैं भी ज़मीन पर बैठूँगा। आखिर इस कुर्सी पर बैठने में तुम्हें क्या आपत्ति है?'
पूर्णा ने अपना हाथ नहीं छुड़ाया, कमलाप्रसाद से उसे झिझक भी नहीं हुई। यह कहती हुई कि बाबूजी, आप बड़ी जिद्द करते हैं, कोई मुझे यहाँ इस तरह बैठे देख ले तो क्या हो - 'वह कुर्सी पर बैठ गई।'
कमलाप्रसाद का चेहरा खिल उठा, बोला - 'अगर कोई कुछ कहे, तो उसकी मूर्खता है। सुमित्रा को यहाँ बैठे देख कर कोई कुछ न कहेगा, तुम्हें बैठे देख कर उसके हाथ आप ही छाती पर पहुँच जाएँगे। यह आदमी के रचे हुए स्वाँग हैं और मैं इन्हें कुछ नहीं समझता। जहाँ देखो ढकोसला, जहाँ देखो पाखंड। हमारा सारा जीवन पाखंडमय हो गया है। मैं इस पाखंड का अंत कर दूँगा। पूर्णा, मैं तुमसे सच कहता हूँ, मैंने आज तक किसी स्त्री की ओर आँख नहीं उठाई। मेरी निगाह में कोई जँचती ही न थी, लेकिन तुम्हें देखते ही मेरे हृदय में एक विचित्र आंदोलन होने लगा। मैं उसी वक्त, समझ गया कि यह ईश्वर की प्रेरणा है। यदि ईश्वर की इच्छा न होती तो तुम इस घर में आती ही क्यों? इस वक्त तुम्हारा यहाँ आना भी ईश्वरीय प्रेरणा है, इसमें लेशमात्र भी संदेह न समझना। एक-से-एक सुंदरियाँ मैंने देखीं, मगर इस चंद्र में हृदय को खींचने वाली जो शक्ति है, वह किसी में नहीं पाई।'
यह कह कर कमलाप्रसाद ने पूर्णा के कपोल को ऊँगली से स्पर्श किया। पूर्णा का मुख आरक्त हो गया, उसने झिझक कर मुँह हटा लिया, पर कुर्सी से उठी नहीं। यहाँ से अब भागना नहीं चाहती थी, इन बातों को सुन कर उसके अंतःस्तल में ऐसी गुदगुदी हो रही थी, जैसी विवाह मंडप में जाते समय युवक के हृदय में होती है।
कमलाप्रसाद को सहसा साड़ियों की याद आ गई। दोनों साड़ियाँ अभी तक उसने संदूक में रख छोड़ी थीं। उसने एक साड़ी निकाल कर पूर्णा के सामने रख दी और कहा - 'देखो, यह वही साड़ी है पूर्णा, उस दिन तुमने इसे अस्वीकार कर दिया था, आज इसे मेरी खातिर से स्वीकार कर लो। एक क्षण के लिए इसे पहन लो। तुम्हारी यह सफेद साड़ी देख कर मेरे हृदय में चोट-सी लगती है। मैं ईमान से कहता हूँ, यह तुम्हारे वास्ते लाया था। सुमित्रा के मन में कोई संदेह न हो, इसलिए एक और लानी पड़ी। नहीं, उठा कर रखो मत। केवल एक ही क्षण के लिए पहन लो। जरा मैं देखना चाहता हूँ कि इस रंग की साड़ी तुम्हें कितनी खिलती है। न मानोगी तो जर्बदस्ती पहना दूँगा।'
पूर्णा ने साड़ी को हाथ में ले कर उसी की ओर ताकते हुए कहा - 'कभी पहन लूँगी, इतनी जल्दी क्या है, फिर यहाँ मैं कैसे पहनूँगी?'
कमलाप्रसाद - 'मैं हट जाता हूँ।'
कमरे के एक तरफ छोटी-सी कोठरी थी, उसी में कमलाप्रसाद कभी-कभी बैठ कर पढ़ता था। उसके द्वार पर छींट का एक परदा पड़ा हुआ था। कमलाप्रसाद परदा उठा कर उस कोठरी में चला गया। पर एकांत हो जाने पर भी पूर्णा साड़ी न पहन सकी। इच्छा पहनने को थी, पर संकोच था कि कमलाप्रसाद अपने दिल में न जाने क्या आशय समझ बैठे।
कमलाप्रसाद ने परदे की आड़ से कहा - 'पहन चुकीं? अब बाहर निकलूँ?'
पूर्णा ने मुस्करा कर कहा - 'हाँ, पहन चुकी; निकलो।'
कमलाप्रसाद ने परदा उठा कर झाँका। पूर्णा हँस पड़ी। कमलाप्रसाद ने फिर परदा खींच लिया और उसकी आड़ से बोला - 'अबकी अगर तुमने न पहना पूर्णा, तो मैं आ कर जर्बदस्ती पहना दूँगा।'
पूर्णा ने साड़ी पहनी तो नहीं, हाँ उसका आँचल खोल कर सिर पर रख लिया। सामने ही आईना था, उस पर उसने निगाह डाली। अपनी रूप-छटा पर वह आप ही मोहित हो गई। एक क्षण के लिए उसके मन में ग्लानि का भाव जागृत हो उठा। उसके मर्मस्थल में कहीं से आवाज़ आई - 'पूर्णा, होश में आ; किधर जा रही है? वह मार्ग तेरे लिए बंद है। तू उस पर क़दम नहीं रख सकती। वह साड़ी को अलग कर देना चाहती थी कि सहसा कमलाप्रसाद परदे से निकल आया और बोला - 'आखिर तुमने नहीं पहनी न? मेरी इतनी जरा-सी बात भी तुम न मान सकी।'
पूर्णा - 'पहने हुए तो हूँ। अब कैसे पहनूँ। कौन अच्छी लगती है। मेरी देह पर आ कर साड़ी की मिट्टी भी ख़राब हो गई।'
कमलाप्रसाद ने अनुरक्त नेत्रों से देख कर कहा - 'जरा आईने में तो देख लो।' पूर्णा ने दबी हुई निगाह आईने पर डाल कर कहा - 'देख लिया। जरा भी अच्छी नहीं लगती।'
कमलाप्रसाद - 'दीपक की ज्योति मात हो गई। वाह रे ईश्वर! तुम ऐसी आलोकमय छवि की रचना कर सकते हो। तुम्हें धन्य है।'
पूर्णा - 'मैं उतार कर फेंक दूँगी।'
कमलाप्रसाद - 'ईश्वर अब मेरा बेड़ा कैसे पार लगेगा।'
पूर्णा - 'मुझे डुबा कर।' यह कहते-कहते पूर्णा की मुख-ज्योति मलिन पड़ गई पूर्णा ने साड़ी उतार कर अलगनी पर रख दी।'
कमलाप्रसाद ने पूछा - 'यहाँ क्यों रखती हो?'
पूर्णा बोली - 'और कहाँ ले जाऊँ। आपकी इतनी खातिर कर दी। ईश्वर न जाने इसका क्या दंड देंगे।'
कमलाप्रसाद - 'ईश्वर दंड नहीं देंगे, पूर्णा, यह उन्हीं की आज्ञा है। तुम उनकी चिंता न करो। खड़ी क्यों हो। अभी तो बहुत रात है, क्या अभी से भाग जाने का इरादा है।'
पूर्णा ने द्वार के पास जा कर कहा - 'अब जाने दो बाबूजी, क्यों मेरा जीवन भ्रष्ट करना चाहते हो। तुम मर्द हो, तुम्हारे लिए सब कुछ माफ है, मैं औरत हूँ, मैं कहाँ जाऊँगी? दूर तक सोचो। अगर घर में जरा भी सुनगुन हो गई, तो जानते हो कि मेरी क्या दुर्गति होगी? डूब मरने के सिवा मेरे लिए कोई और उपाय रह जाएगा? इसकी सोचिए, आप मेरे पीछे निर्वासित होना पसंद करेंगे? और फिर बदनाम हो कर, कलंकित हो कर जिए, तो क्या जिए? नहीं बाबू जी, मुझ पर दया कीजिए। मैं तो आज मर भी जाऊँ, तो किसी की कोई हानि न होगी, वरन पृथ्वी का कुछ बोझ ही हल्का हो लेकिन आपका जीवन बहुमूल्य है। उसे आप मेरे लिए क्यों बाधा में डालिएगा? ज्यों ही कोई अवसर आएगा, आप हाथ झाड़ कर अलग हो जाइएगा, मेरी क्या गति होगी? इसकी आपको उस वक्त जरा भी चिंता न होगी।'
कमलाप्रसाद ने ज़ोर दे कर कहा - 'यह कभी नहीं हो सकता पूर्णा, जरूरत पड़े तो तुम्हारे लिए प्राण तक दे दूँ। जब चाहे परीक्षा ले कर देखो।'
पूर्णा - 'बाबूजी, यह सब ख़ाली बात-ही-बात है। इसी मुहल्ले में दो-ऐसी घटनाएँ देख चुकी हूँ। आपको न जाने क्यों मेरे इस रूप पर मोह हो गया है। अपने दुर्भाग्य के सिवा इसे और क्या कहूँ? जब तक आपकी इच्छा होगी, अपना मन बहलाइएगा, फिर बात भी न पूछिएगा, यह सब समझ रही हूँ? ईश्वर को आप बार-बार बीच में घसीट लाते हैं, इसका मतलब भी समझ रही हूँ। ईश्वर किसी को कुमार्ग की ओर नहीं ले जाते। इसे चाहे प्रेम कहिए चाहे वैराग्य कहिए, लेकिन है कुमार्ग ही। मैं इस धोखे में नहीं आने की, आज जो कुछ हो गया, हो गया, अब भूल कर भी मेरी ओर आँख न उठाइएगा, नहीं तो मैं यहाँ न रहूँगी। यदि कुछ न हो सकेगा, तो डूब मरूँगी। ईंधन न पा कर आग आप-ही-आप बुझ जाती है। उसमें ईंधन न डालिए।'
कमलाप्रसाद ने मुँह लटका कर कहा - 'पूर्णा, मैं तो मर जाऊँगा। सच कहता हूँ, मैं ज़हर खा कर सो रहूँगा, और हत्या तुम्हारे सिर जाएगी।'
यह अंतिम वाक्य पूर्णा ने सुना था या नहीं, हम नहीं कह सकते। उसने द्वार खोला और आँगन की ओर चली। कमलाप्रसाद द्वार पर खड़ा ताकता रहा। पूर्णा को रोकने का उसे साहस न हुआ। चिड़िया एक बार दाने पर आ कर फिर न जाने क्या आहट पा कर उड़ गई थी। इतनी ही देर में पूर्णा के मनोभावों में कितने रूपांतर हुए, वह खड़ा यही सोचता रहा। वह रोष, फिर वह हास-विलास, और अंत में यह विराग! यह रहस्य उसकी समझ में न आता था। क्या वह चिड़िया फिर दाने पर गिरेगी? यही प्रश्न कमलाप्रसाद के मस्तिष्क में बार-बार उठने लगा।